विश्वकर्मा ने समुद्र के मध्य में नगरी बनाई और उसमे यादवों को रखा गया।
बड़े-बड़े भव्य राज प्रासादों का निर्माण किया गया। बड़े-बड़े महलों में जब लोगों को द्वार नहीं दिखाई दिए तो-
उन्होंने पूछा- द्वार कहाँ है? इसलिए उस नगरी का नाम पड़ा “द्वारिका”
उपनिषद में “क” का अर्थ है ब्रह्म। द्वार अर्थात -दरवाजा।
जहाँ प्रत्येक द्वार पर परमात्मा का वास है,वह नगरी द्वारिका है।
जिस शरीररूपी नगरी के इन्द्रियों-रूपी द्वारों पर परमात्मा को स्थान दोगे-
तो जरासंघ और कालयवन तुम्हे सता नहीं पायेगा।
द्वारिका में ये दोनों घुस नहीं सकते। प्रत्येक इन्द्रिय से भक्ति करने वाला जीव कालयवन पर विजय पाता है।
यदि जरासंघ तुम्हारा पीछा कर रहा है,तो प्रवर्षण-पर्वत पर निवास करो।
प्रवर्षण पर्वत अर्थात जहाँ ज्ञान और भक्ति की मूसलधार वर्षा हो रही है।
श्रीकृष्ण भी जरासंघ से छूटने के लिए प्रवर्षण पर्वत पर चले गये थे।
इक्यावन-बावन वर्ष की उम्र होते ही गृहस्थाश्रम के लिए तुम पात्र नहीं रहते।
तुमने वन में प्रवेश किया अर्थात घर की आसक्ति अब छोड़नी है।
विलासी लोगों के बिच में रहकर विरक्त जीवन जीना आसान नहीं है।
जहाँ भक्ति और ज्ञान हो वैसी पवित्र भूमि में रहकर ही जरासंघका पीछा छुड़ा सकोगे।
भोग भूमि में भक्ति ठीक से नहीं होती।
जन्म मरण की व्यथा ही जरासंघ है।
संकल्प करो कि अब मुझे न तो पुरुष बनना है और न तो स्त्री। मुझे पुनर्जन्म ही नहीं लेना है।
जरासंघ जन्म,जरा,मृत्यु के त्रास से छूटने के लिए प्रतिदिन इक्कीस हज़ार जप नियमित करते रहो।
जप के बिना पाप और वासना छूट नहीं पायेंगे।
कथा श्रवण पाप को जलाकर मार्ग दर्शन देता है। कथा सुन कर जप का,भगवान की भक्ति करने का,
सत्कर्म करने का संकल्प करो। कथा श्रवण करने से भगवान से सम्बन्ध जुड़ेगा।
इसके पर एक दृष्टान्त है।
एक बनिया कथा सुनने जाता था। कथाकार महाराज ने उससे कहा,
तुम कथा सुनते हो सो कुछ -कोई एक अच्छा-सा संकल्प करो। जैसे-सत्य बोलने का संकल्प करो।
बनिए ने कहा कि -अगर वह सत्य बोलेगा तो सारा कारोबार चौपट हो जायेगा।
तब फिर-महाराज ने कहा कि किसी की निंदा न करने का व्रत लो।
बनिया कहने लगा कि-महाराज,जब तक रात को मै दो-तीन घंटे बातें में न गुजारूँ,मुझे नींद नहीं आती।
मै यह व्रत नहीं ले सकता। फिर भी महाराज जब आप कहते ही है तो-,मै यह संकल्प लेता हूँ कि -
रोज सुबह -उठकर -सामने रहने वाले कुम्हारका मुँह देखूँगा।