जीव को मनुष्य का देह मिला है किन्तु विषयासक्त होने के कारण-
वह भगवानके चरणारविन्द की सेवा करता ही नहीं है। मनुष्य कितना प्रमादी है?
जीव की स्थिति तो सर्प के मुँह में फँसे हुए मेढ़क सी है।
सर्प के मुँह में फँसा हुआ मेढ़क अपनी मृत्यु की तो सोचता ही नहीं,
उलटे यदि कोई जंतु निकट आया तो उसे निगल जाने के लिए जीभ लंबी करता है।
मनुष्य भी काल के मुँह में फँसा है,फिर भी उसकी विषयासक्ति मिटती नहीं है।
पचास वर्ष की वय पूरी होते ही समझ लो कि तुम काल के मुँह में आधे तो जा चुके हो।
काल तो हमेशा सावधान ही रहता है,जीव ही असावधानता रहता है। सत्संग के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
मुचुकुन्द प्रार्थना करता है -
नाथ,कृपा कीजिए कि मेरा मन सांसारिक जड़ पदार्थों की और न जाये। मुझे अनन्य भक्ति दीजिये।
भगवान कहते है,मुचुकुन्द,इस जन्म में तो मुझे अनन्य भक्ति नहीं मिल पायेगी।
तू युवावस्था में बड़ा कामी और विलासी था। तुझे एक जन्म और लेना पड़ेगा।
तेरा वह जन्म ब्राह्मण योनि में होगा और उस जन्म में तुझे अनन्य भक्ति प्राप्त होगी।
मुचुकुन्द ने कठोर तपश्चर्या की और क्षत्रिय शरीर छूट गया। अगले जन्म में वे ब्राह्मण बने।
द्वापर युग के क्षत्रिय राजा मुचुकुन्द कलियुग में नरसिंह महेता का रूप लेकर अवतरित हुए।
वे द्वारकाधीश के बड़े प्यारे थे। भगवान् ने उनके बावन कार्य परिपूर्ण किये थे।
मुचुकुन्द राजाकी कथा इस तथ्य का द्योतक है कि-
अपनी युवावस्थाको विलासिता में बिता देनेवालेको मुक्ति मिलना दुष्कर है। ऐसे को अनन्य भक्ति भी नहीं मिलती। सो धीरे-धीरे संयम को बढ़ाते जाना चाहिए और भगवतमय जीवन जीना चाहिए। जवानीमें भी ईश्वरस्मरण करो। ऐसा करने पर ही इस जीवनमें अनन्य भक्ति प्राप्त होगी।
काल-यवन का नाश करके और मुचकुन्द को मुक्ति दिलाकर प्रभु द्वारका पधारे है।
मथुरा में भगवानका एक भी विवाह नहीं हुआ है। द्वारका में आने के बाद सभी विवाह हुए है।
महापुरुषोंने कहा है -एक एक इन्द्रियोंके द्वार पर काबु रखो,ब्रह्म-विद्याको प्राप्त करो और फिर विवाह करो। जितेन्द्रिय होकर विवाह करो। इसलिए गृहस्थाश्रमसे पहले ब्रह्मचर्याश्रम बताया है।
रुक्मणि महालक्ष्मी है,वह मात्र जितेन्द्रिय नारायण को ही मिलती है,शिशुपाल को नहीं।
यह रुक्मणि-हरणकी कथा का तात्पर्य है।
शिशुपाल-शिशु के लालन-पालन में जिसका जीवन,धन और समय पूरा होता है -
ऐसा कामी पुरुष-जिसे संसारका सुख मीठा लगता है वह है शिशुपाल।