और उसका विवेकसे उपयोग किया जाए तो कभी नारायण भी,घरमें आयेंगे।
जीव (मनुष्य) लक्ष्मीजी का विवेक से “उपयोग” कर सकता है पर “उपभोग”नहीं कर सकता।
उपयोग और उपभोग में फरक है।
इन्द्रियोंको अनिवार्य वस्तु-विषयोंका देना -वह-उपयोग हुआ,
किन्तु इन्द्रियोंकी बिना आवश्यकता के विषयोंको देते रहना,उन्हें बहलाते रहना-वह- उपभोग है।
इन्द्रियों के अधीन होकर विषयों को देते रहना उपभोग है।
धन के दुरूपयोग से इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ते है।
संपत्ति और शक्ति का सदुपयोग करने वाला देव है और दुरूपयोग करने वाला दैत्य है।
भागवत की कथा मानव को देव बनाने के लिए है।
शास्त्र में लक्ष्मी के तीन भेद बताए है -लक्ष्मी,महालक्ष्मी और अलक्ष्मी।
(१) लक्ष्मी- नीति अनीति दोनों तरफसे प्राप्त धन,साधारण लक्ष्मी है।,जिसका कुछ भाग-सदुपयोग और
कुछ दुरूपयोग में जाता है।
(२) महालक्ष्मी- धर्मानुसार प्राप्त धन महालक्ष्मी है। श्रमकी मात्रासे अधिक धन,लाभ मुनाफा लेना
पाप और चोरी है।
धर्म मुख्य है। धर्म ही मृत्यु के पश्चात् भी साथ आता है। धर्मानुसार,श्रमपूर्वक,नीति से प्राप्त धन महालक्ष्मी है।
ऐसा धन हमेशा शुभ कार्यो में ही खर्च होता है।
(३) अलक्ष्मी- पापाचरण,अनीति से प्राप्त धन अलक्ष्मी है। ऐसा धन विलासिता में ही बह जाएगा और
जीव को शान्ति देने के बदले रुलाएगा।
मृतात्मा के साथ धर्म के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं जाता।
नीति,धर्म,सदाचार से प्राप्त ही महालक्ष्मी है,जो शांतिदायी भी है।
परीक्षित ने कहा -रुक्मिणी विवाह की कथा मुझे विस्तार से सुनने की इच्छा है।
शुकदेवजी बोले- राजा श्रवण करो।
विदर्भ देश के राजा भीष्मकके पाँच पुत्र और एक कन्या थी।
ज्येष्ठ पुत्रका नाम रुक्मी और कन्या का नाम रुक्मणी था। रुक्मणी लक्ष्मी का अवतार थी।
भीष्मक राजा की इच्छा थी कि रुक्मणी का विवाह श्रीकृष्ण से किया जाए -
किन्तु राजा का पुत्र रुक्मी अपनी बहन का विवाह श्रीकृष्ण के साथ नहीं,राजा शिशुपाल के साथ करना चाहता था। रुक्मणीने जब भाई की इच्छा जानी तो उसे बहुत दुःख हुआ।