Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-450


श्रीकृष्ण ने रुक्मणी का पत्र पढ़ा। अक्षर और भाषा से ही मनुष्य की परीक्षा हो जाती है।
रुक्मणी ने उस छोटे से पत्र में,मात्र सात श्लोकों में से छ श्लोक श्रीकृष्ण के सद्गुणों का वर्णन किया।
उन श्लोकों में ऐश्वर्य,यश,श्री,ज्ञान और वैराग्य कूट-कूट कर भरा है। और सातवें श्लोक में है  शरणागति।
जीव यदि दीन बनकर भगवान के पास जाता है तो वे उसकी उपेक्षा नहीं करते,उसे अपना लेते है।
जीवका धर्म भी शरणागति लेना ही है।

पत्र में श्रीकृष्ण को सुन्दर-सा संबोधन दिया गया था।
यह जगत नहीं,जगत का सर्जनहार सुन्दर है। संसार में जो कुछ सुंदरता है,वह श्रीकृष्ण के सौंदर्य का अंश मात्र है। संसार कार्य है और कृष्ण कारण। सौंदर्यकी कल्पना से विकार का जन्म हो सकता है।

पत्र में लिखा है- आपके सौंदर्य के साथ-साथ आपके सदगुणोंकी कथा भी मैंने महात्माओंसे सुनी है
और इसी कारण से आपसे विवाह करने का मैंने निश्चय किया है।
आपके सद्गुणों ने मेरा मन मोह लिया है,मेरा चित्त चोर लिया है। आपके सद्गुणों ने मेरा मन निर्लज्ज बना दिया है।
नाथ,मै किसी कामी पुरुष के साथ विवाह करना नहीं चाहती।
मैंने अपनी आत्मा आपके चरणोंमें समर्पित कर दी है। आप मेरा स्वीकार कीजिये।
पत्रके अंत में रुक्मणीने अपना शरणागतिका  दृढ़ निश्चय बताया है।
ऐसा निश्चय जब हो तो भगवान क्यों नहीं मिले?

रुक्मणी का पत्र पढ़कर श्रीकृष्ण डोलने लगे। श्रीकृष्ण सरल है -उन्होंने ब्राह्मणको कह दिया कि-
अगर कन्या को मेरे साथ विवाह करने की इच्छा है तो मुझे भी उसके साथ विवाह करने की इच्छा है।
रुक्मणी श्रीकृष्ण की आद्यशक्ति है। वह श्रीकृष्ण के सिवाय किसी से भी विवाह नहीं कर सकती।

भगवान ने अपने सारथी दारुक से रथ तैयार करवाया और ब्राह्मण सुदेव को वन्दन करके गणेशजी का स्मरण किया और रथारूढ़ हुए। रथ ने प्रयाण किया और वे  विदर्भ नगरी पहुँचे है।
सुदेव ब्राह्मण हँसते हुए रुक्मणी को सन्देश देने पहुँचे।
ब्राह्मण को हँसते हुए देखकर रुकमणीजी समझ गई कि ब्राह्मण काम सिद्ध करके आया है।
रुक्मणी ने ब्राह्मण के चरण में प्रणाम किया।
श्रीधर स्वामी ने उनकी टीका में लिखा है -लक्ष्मी (रुक्मणी)जी (आद्य-शक्ति) ब्राह्मण के चरण में वंदन करती है।

सुदेव(ब्राह्मण) ने रुकमणीजी से कहा -बेटा द्वारकानाथ को लेकर आया हूँ। प्रभु ने तेरा स्वीकार किया है।
तू चिन्ता मत करना। तू अम्बेमाताजी की पूजा करने जायेगी,वहाँ द्वारकानाथ रथ को खड़ा रखेंगे  
और तुझे रथ में बिठाकर ले जायेंगे।
यह सुनकर रुकमणीजी को खूब आनंद हुआ।
रुक्मणी ने ब्राह्मण को प्रणाम करते हुए पूछा -मै आपकी क्या सेवा कर?आपको क्या दू?
सुदेवजी ने कहा -मुझे कोई चीज की जरूर नहीं है। मैंने जो कुछ किया है वह लेने के लिए नहीं किया है।  
मुझे कोई अपेक्षा नहीं है। तेरी जय हो। तू सभी रानियों में श्रेष्ठ होगी। प्रभु की मानीति होगी।
रुक्मणि भगवान से मिलानेवाले उस सुदेव की जन्म-जन्मान्तर की ऋणी हो गयी.

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