उसने श्रीकृष्ण के आगमन के समाचार सुने तो कुछ डर सा गया।
जरासंघ ने कहा- आप घबराइए मत। मैंने उसे एक बार हराया है।
(पर ऐसा नहीं कहा कि श्रीकृष्ण ने उसे सत्रह बार हराया था।)
उस समय रुक्मि वहाँ आया है और बोला- मेरी बहन के पास कोई नहीं जा सकता.मैंने उसका पूरा बंदोबस्त किया है। मेरे पहलवान उसे घेर लेंगे। और अगर फिर भी कुछ तूफ़ान हुआ- तो हम निपट लेंगे।
उधर रुक्मणी ने स्नान-श्रृंगार से नियुक्त होकर तुलसी और माता-पिता की पूजा की। पिता का दिल भर आया है।
यह पुत्री नहीं पर राजलक्ष्मी है। मेरी बहुत इच्छा थी कि वह घर में रहे तो अच्छा,पर कन्या तो पराया धन है।
रुक्मणी पार्वतीके मंदिर दर्शन करने निकली है।
कई राजाओं की रुक्मणी के दर्शन की,माताजी के सौन्दर्य को निहारने की इच्छा थी किन्तु उन्हें कुछ नहीं दिख पाया। रुक्मणी मन्दिर में पूजा तो पार्वती की कर रही थी किन्तु उस मूर्ति में उसे द्वारिकानाथ के ही दर्शन हो रहे थे क्योकि उसकी भक्ति अनन्य थी। रुक्मणी ने गणेशजी और पार्वती की पूजा की और प्रार्थना कि-
मै हमेशा आपकी पूजा करुँगी। मेरी श्रीकृष्ण से विवाह हो जाये,ऐसा कीजिए। पार्वतीजी ने उसे आशीर्वाद दिया।
रुकमणीजी पूजा समाप्त करके मंदिर से धीरे-धीरे नीचे आ रही थी तो कामांध राजागण उसके सौन्दर्यकी प्रशंसा कर उसे कामभाव से देखने लगे। रुक्मणी को यह ठीक नहीं लगा। उन्हें गुस्सा आया है और अपनी दृष्टि से तेज प्रकट किया कि सभी कामांध राजा मूर्छित हो गए।
प्रभु ने दारुक को रथ आगे बढ़ाने की आज्ञा दी। दूर से गरुड़ ध्वज देखकर रुक्मणी प्रसन्न हो गयी। प्रभु ने उसका हाथ पकड़कर अपने रथ में उसको बिठाया और रथ द्वारिका की की दिशा के दौड़ने लगा।
शिशुपाल को जब पता चला तो जरासंघ आदि राजाओं को लेकर लड़ने निकले है।
इस तरफ दाऊजी को जब पता चला कि श्रीकृष्ण रुकमणी का हरण करने गये है तो उन्होंने सेना के साथ विदर्भ की और प्रयाण किया। समयसर पहुँचकर शिशुपाल और जरासंघ की सेना के साथ युद्ध करके उनकी सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया। शिशुपाल,जरासंघ,आदि राजा जान बचाकर भाग गए।
रुक्मि श्रीकृष्ण के साथ युध्द करने आ रहा था - तो दाऊजीने उसे पकड़कर एक खम्भे के साथ बांध दिया।
श्रीकृष्ण सोचते है कि बड़े भाई का मेरे पर कितना प्रेम है। उन्हें मालूम पड़ते ही दौड़कर यहाँ आये है।
रुक्मणिके कहने पर श्रीकृष्ण ने रुक्मि को छोड़ा है। रुक्मणी के साथ श्रीकृष्ण द्वारका आये है।
प्रभु का अब विवाह होने वाला है। श्रीकृष्ण उद्धवजीसे कहते है -मेरे माता-पिता तो नन्द-यशोदा है,उनकी गोद में मै खेलता था। मेरी माँ द्वारका न आये तब तक मै विवाह नहीं करूँगा।
उद्धवजी के पास पत्र लिखवाकर गोकुल भेजा है।