ये सोलह हज़ार कन्यायें वेदों की ऋचाएं (उपासना कांड) है।
वेद के तीन काण्ड और एक लाख मन्त्र है।
कर्मकांड के ८० हजार,उपासनाकांड के १६ हजार,४ हजार सन्यासी और वानप्रस्थीओ के लिए है।
वेदों का ज्ञान विरक्त के लिए है,विलासी के लिए नहीं।
विलासी उपनिषद का तत्वज्ञान समझ नहीं पाता। भागवत सभी के लिए है।
वेदोंने ईश्वरके स्वरुप का वर्णन तो अधिक किया किन्तु उनको पा नहीं सके।
सो वेदों की ऋचा कन्या बनकर श्रीकृष्ण से विवाह करने आयी। वेदों के मंत्र केवल शब्द-रूप नहीं है।
प्रत्येक मंत्रके ऋषि है,देव है। वेदमन्त्र के देव,तपश्चर्या करके थक गए फिर भी ब्रह्मसम्बन्ध नहीं हो पाया।
सो वे कन्या का रूप लेकर आये। वेद की ऋचाएँ कन्या बनकर प्रभु-सेवा करने आयी।
गृहस्थाश्रम धर्म का वर्णन वेदके सोलह हजार मंत्रों में किया गया है,
सो श्रीकृष्ण की सोलह हज़ार रानियाँ कही गई है।
थोड़ा सोचो- वेद-मंत्रोंको भौमासुरने कारागृह में रखा था। भौम अर्थात शरीर।
शरीर के साथ खेलने में जिसे आनंद मिलता है वह कामी जीव यानि भौमासुर। कामी व्यक्ति मंत्रका
अपने विलासी मन की पुष्टि के लिए विकृत अर्थ करता है। ऐसे व्यक्ति मंत्रो का दुरूपयोग करते है।
वेद का तात्पर्य भोग में नहीं त्याग में है। वेद को निवृत्ति प्रिय है।
प्रवृत्तियों को एक साथ और हमेशा के लिए छोड़ा तो नहीं जा सकता किन्तु कुछ भी करो,
धर्म की मर्यादा में रहकर करो। धर्म की मर्यादा में रहकर ही अर्थोपार्जन और कामोपभोग करो।
वेदों का कहना है कि भोगों को धीरे-धीरे कम करते जाओ और संयम को बढ़ाते जाओ।
वेदों ने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की चर्चा की है किन्तु उसका निर्देश निवृत्ति का ही है।
गीता में मुख्य अनासक्ति का ही उपदेश है,फिर भी लोग अपना अर्थ बताते रहते है।
कोई गीता को कर्मप्रधान बताता है,कोई भक्तिप्रधान,तो कोई ज्ञानप्रधान को बताता है।
वैसे तो गीता में तीनो का प्राधान्य है।
शंकराचार्य ने कहा है कि चित्त शुद्धिके लिए कर्म आवश्यक है। चित्तकी एकाग्रता के लिए उपासना आवश्यक है। भक्तिपूर्वक कर्म से चित्त एकाग्र होगा। भक्ति,उपासना मन को एकाग्र करती है। ईश्वर में मन एकाग्र होगा तो ज्ञान अवश्य मिलेगा। ज्ञान,परमात्मा का अनुभव कराता है। गीता में कर्म,भक्ति और ज्ञान तीनों का समन्वय है।
इस प्रकार भगवान् के विवाहों के वर्णन के बाद एक अध्याय में भगवान् की अनासक्ति बताई है।
श्रीकृष्ण ने बताया है -स्नेह सभी से करो किन्तु किसी में भी आसक्त न बनो,वासना के अधीन न हो जाओ।
वासना के गुलाम मत बनो। श्रीकृष्ण गृहस्थाश्रम का आदर्श जगत को बताते है।
श्रीकृष्ण सभी रानियों के साथ प्रेम करते है पर किसी में भी आसक्त नहीं है।