Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-456


एक बार नारदजी को श्रीकृष्ण का घर-संसार देखने की इच्छा हुई।
श्रीकृष्ण १६,१०८ रानियों के साथ किस प्रकार व्यव्हार निभाते होंगे? वे सब रानियों को कैसे मिलते होंगे?
सर्व को कैसे खुश रखते होंगे?
शास्त्र कहता है कि ब्रह्मचारी या सन्यासी को गृहस्थी का विचार नहीं करना चाहिए।
जो रास्ते पर जाना नहीं उसके बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। पर यह तो नारदजी है।

वे द्वारिका आकर श्रीकृष्ण के महल  में प्रविष्ट हुए। उस समय श्रीकृष्ण रुक्मणी के पास थे।
उन्होंने नारदजी का स्वागत किया। स्वयं प्रभु होते हुए ही भी  सन्यासी नारद के उन्होंने पाँव पखारे।
श्रीकृष्ण जैसा गृहस्थ और सन्यासी आज तक दूसरा कोई नहीं हुआ है।
वे नारदजीके आगमन का कारण जान गए,फिर भी पूछा-कहिये महाराज, आपका क्यों आना हुआ?

वहाँ  से नारदजी भगवान के दूसरे महल में गए। वहाँ उन्होंने श्रीकृष्ण को उद्धवजी के साथ शतरंज खलेते हुए पाया। श्रीकृष्ण ने खड़े होकर उनका स्वागत किया  और आने का कारण पूछा।
नारदजी आश्चर्य में पड़ गए कि अभी थोड़ी देर पहले तो रुक्मणीके महल में मेरा स्वागत किया था
और अब मुझे पूछ रहे है कब आये?
कही पर भोजन करते,तो कही सोते हुए पाया। एक महल में तो कथा सुनते हुए देखा। अब वे चलते-चलते थक गए। वे सोचने लगे कि अब तो किसी महल में जल-पान करने को मिले तो अच्छा।
जब महल में पहुँचे तो भगवान ने पूछा-नारदजी आप कब आये?
नारदजी तो चार घण्टे से घूम रहे थे फिर भी कहा -अभी आया।

यह तो योगेश्वर की माया थी। भगवान् ने कहा,नारादजी,मै तेरी पूजा करता हूँ,इसका अर्थ यह नहीं है कि तू मुझसे बढ़कर है । मै तो गृहस्थ धर्म के पालन के लिए ही तेरी पूजा कर रहा हूँ।
वैसे तो तू मेरा पौत्र है क्योंकि तेरा पिता ब्रह्मा,मेरा पुत्र है। मेरा वैभव देखकर तुझे तो आनंद होना चाहिए।
नारदजी ने माफ़ी माँगी और वहाँ से विदा हुए।

इसके बाद सत्रहवें अध्याय में भगवान् के दिनचर्या का वर्णन है। वे ब्रह्म मुहूर्त में ही शय्या त्याग करते थे।
स्नानादि से निवृत होकर त्रिकाल संध्या,गायत्री जप,दान आदि करते थे और फिर व्यावहारिक कामकाज करते थे।

एक बार नारदजी ने भगवान से विनती की कि जरासंघ द्वारा बंदी बनाये गए राजाओं को मुक्त करो।
उसी समय युधिष्ठिर की ओर से आमंत्रण आया कि राजसूय  यज्ञ में पधारिये।
भगवान सोचने लगे कि कौन सा काम किया जाए। नारदजी ने कहा कि वे प्रथम यज्ञ में ही जाए।

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