शारीरिक मिलनकी अपेक्षा मानसिक मिलन बड़ा सुखदायी है।
सुशीला बोली-दर्शन कभी प्रत्यक्ष भी तो करने चाहिए। मुझे पता है कि -
आपकी प्रतिज्ञा है किसी के द्वार पर नहीं जाने की। पर श्रीकृष्ण तो परमात्मा है।
उनके द्वार सभी के लिए खुले है।वहाँ जाने में संकोच कैसा? मित्र से तो मिलना ही चाहिए।
सुदामा ज्ञानी तपस्वी ब्राह्मण है फिर भी उनमे सूक्ष्म अभिमान है कि वे अन्य ब्राह्मणों से श्रेष्ठ है।
पर आज उन्होंने सोचा-कि-परमात्माके द्वार पर तो सभी को जाना पड़ता है।
नहीं जाउंगा तो अभिमानी कहलाऊँगा। सुशीला के सत्संग से उनका अभिमान दूर हुआ है।
वे सोचते है -आज तक मेरी पत्नीने मुझे कुछ नहीं कहा है। घर में पंद्रह दिनसे खाने के लिए कुछ नहीं है।
वह बहुत लायक पत्नी है। इसलिए मै भक्ति कर सकता हूँ। आज मै उसका अपमान करू वह ठीक नहीं है।
वे जाने के लिए तैयार हुए है।
वे पत्नी से कहने लगे- वर्षों के बाद मित्र से मिलने जा रहा हूँ तो कुछ भेंट तो ले जाना चाहता हूँ।
खाली हाथ जाने में शोभा नहीं है। घर में कुछ भी नहीं था।
सो सुशीला पड़ोसीके घर से दो मुठ्ठी भर तंदुल माँग लाई। धन्य है सुशीला को कि तंदुल का एक दाना भी
घर में न रखा और सर तंदुल एक चिथड़े में बांधकर भगवानके लिए दे दिए।
सुशीला ने सोचा- सोने का महल और वैभव देखकर वे घबरा जायेंगे और शर्म के मारे ये तंदुल नहीं देंगे-
इसलिए कहा- नाथ,अगर आपको तंदुल देने में संकोच हो तो द्वारकाधीश को मेरा नाम देकर देना
और कहना कि तुम्हारी भाभीने यह भेंट भेजी है। मै गरीब हूँ पर द्वारकाधीश की भाभी हूँ।
पत्नी के कहने पर और द्वारकाधीश के दर्शन होंगे ऐसा सोचकर सुदामा द्वारका जाने के लिए निकले है।
फटी हुई धोती,एक हाथ में लकड़ी और बगल में तंदुल की पोटली थी।
सुशीला सोच रही है कि कई दिनों के भूखे मेरे पति वहाँ तक कैसे पँहुच पायेंगे?
मैंने ही उनको जाने के लिए विवश किया। किन्तु और कोई उपाय भी तो नहीं था।
अपने भूखे बालकों की दुर्दशा भी तो देखी नहीं जाती।
सुशीला सूर्यनारायण से प्रार्थना करने लगी-मेरे पति की रक्षा करना।
सुदामा पोष शुक्ल सप्तमी के दिन द्वारिका गए। अति ठंडी के कारण उनका शरीर काँप रहा था।
सात दिनोंके भूखे दुर्बल सुदामा दो मील चलते ही थक गए। वे सोचते है कि द्वारिकानाथके दर्शन होंगे भी या नहीं। रास्ते में दुर्बलता और चिंता के कारण उनको मूर्छा आती है।