तपस्वी ब्राह्मण तपश्चर्या छोड़कर मेरे घर आ रहा है।
भगवान को चिंता हुई कि दुर्बल अशक्त देह द्वारका तक कैसे पहुँचेगा? वे पैदल चलकर आये वह शोभा नहीं देता। उन्होंने गरुड़जी को भेजकर सुदामा को आकाशमार्ग से द्वारिका तक पहुँचा दिया।
दो घंटे बाद जब सुदामा मूर्छा में से जागे तो तो लोगों को पहुँचने लगे -यह कौन सा गाँव है?
एक ने जवाब दिया -द्वारका।
सुदामा सोचते है -क्या यह द्वारका है? लोग तो मुझे डरा रहे थे कि दस-बार दिन में पहुँचोगे?
पर द्वारका तो दूर नहीं है। मै तो सुबह निकल और शाम को यहाँ आ गया।
उन्हें पता नहीं है कि गरुड़जी उन्हें उठाकर लाये है।
भगवान के लिए तुम दस कदम चलोगे तो वे बीस कोस चलकर तुमसे मिलने आयेंगे।
सुदामा लोगों से द्वारिकानाथ के महल का पता पूछते है। वे मेरे मित्र है।
लोगो ने पूछा-तुम उनसे क्यों मिलना चाहते हो? आप उन्हें जानते हो?
सुदामा कहते है- द्वारिकानाथ मेरे मित्र है। हम साथ पढ़ते थे। लोग उनके सामने देखकर हँसते है। वे सोचते है कि ऐसी फटी हुई धोती पहनने वाला कभी द्वारिकानाथ का मित्र हो सकता है? वे सुदामा की बात माने तैयार नहीं है।
एक आदमी ने रास्ता बताया ,इस रास्ते पर आगे जाओ,आगे सोलह हज़ार महल है,
पहला रुक्मणीका है,शायद उनके महलमें श्रीकृष्ण मिलेंगे।
भगवत स्मरण करते-करते सुदामा रुक्मणी के महल के पास आये है। श्रीकृष्ण का वैभव देखकर खुश हुए है। सुदामा की आँख में प्रेम है। मेरे श्रीकृष्ण के घर में सदा लक्ष्मी रहे।
मेरा मित्र सदा सुख रहे ऐसे ह्रदय से आशीर्वाद दिए है।
द्वारपाल उन्हें भिखमंगा मानकर रोकते हुए कहने लगे,जो चाहिए हमसे माँग लो,तुम अंदर नहीं जा सकते।
सुदामा-मै द्वारिकाधीश से कुछ मांगने नहीं,मिलने आया हूँ। वे मेरे मित्र है।
आप जाकर श्रीकृष्ण से कहो -आपका बालमित्र सुदामा आपसे मिलने आया है।
द्वारपाल अंदर गया और प्रणाम करके प्रभु से कहने लगा -प्रभु द्वार पर एक भिखमँगा-सा दुर्बल ब्राह्मण आया है। आँखे अंदर धंसी हुई है,हड्डियां दिखाई दे रही है,फटे हाल है। मुख पर दिव्य तेज है।
वह हमसे कुछ भी लेना नहीं चाहता। कहता है कि आपका मित्र सुदामा है और आपसे मिलने आया है।
सुदामा का नाम सुनते ही भगवान द्वार की ओर दौड़े। वे आसपास का,अपने वैभव और ऐश्वर्य सब कुछ भूलकर सामान्य मानवी बन अपने मित्र को मिलने दौड़े है।
वे सुदामा को पुकारते हुए दौड़कर द्वार पर आये है। कहाँ है मेरा सुदामा?