आज तक न जाने कितने लोग मिलने आये किन्तु वे (श्रीकृष्ण) ऐसे विहवल नहीं हुए थे।
श्रीकृष्ण ने सुदामा को अपने ह्रदय से लगा दिया। अपने मित्र की ऐसी विषम दशा देखकर उनको अत्यन्त दुःख हुआ। श्रीकृष्ण सोचते है-मुझे ही उसे मिलनेके लिए जाना चाहिए था। दोनोंके आँखोंसे आँसू निकल रहे है।
श्रीकृष्ण ने सुदामासे कहा-मित्र,अच्छा हुआ तू आ गया।
सुदामा ने सोचा -कन्हैया के पास इतना वैभव और ऐश्वर्य होने के पश्चात् मुझे नहीं भूला है।
किसी की भी परवाह किये बिना दौड़ता हुआ मुझे मिलने आया है।
श्रीकृष्ण हाथ पकड़कर सुदामा को अंदर महल में ले गये और पलंग पर सुदामा को बिठाया।
वे खुद उसके चरण में नीचे बैठे है।
यह दृश्य की कल्पना करने जैसी है।
जिस पलंग पर श्रीकृष्ण के सिवाय किसी और को बैठने का अधिकार नहीं है
उस पलंग पर आज सुदामा बैठे है और उनके चरण में तीन लोक के मालिक जमीन पर बैठे है।
श्रीकृष्ण ने रुक्मणी से कहा- मुझे मेरे मित्र की पूजा करनी है। जल्दी तैयारी करो। रुक्मणी जल लेकर वापस आये उससे पहले ही श्रीकृष्ण ने अपने अश्रुजल से सुदामा के चरण धो दिए। प्रेम की यह पराकाष्ठा है..... !!!!
कवियों ने इस प्रेम की पराकाष्ठा का वर्णन अनेक कविताओं में किया है। नरोत्तम कवि लिखते है-
देखि सुदामा की दीन दसा,करुणा करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नाहि,नैनन के जलसो पग धोये।
सुदामा तपस्वी ब्राह्मण थे। पूरा दिन जप करते इसलिए पाँव में जूते नहीं पहनते। इसलिए पाँव में काँटे चुभे हुए थे। प्रभु काँटे निकालने लगे। एक काँटा निकल नहीं रहा था तो प्रभु ने रुक्मणी को सुई लाने को कहा।
रुक्मणी को आने में देर हो गई तो प्रभु अपने दाँतो से वह काँटा निकालने लगे।
सुदामा कहने लगे-अरे प्रभु,आप यह क्या कर रहे है? कही रानियों ने देख लिया तो?
आप राजाधिराज होकर ऐसे मुँह से काँटा निकाले वह आपको शोभा नहीं देता।
कृष्ण- तू कैसे बातें करता हे? मै तो तेरा सेवक हूँ। तेरा कन्हैया सम्पत्ति आने पर सानभान नहीं भूला है।
श्रीकृष्ण आज भूल गए है कि वे परमात्मा है,राजाधिराज है। उन्होंने काँटा निकाल दिया।
सुदामा निष्पाप थे इसलिए भगवान् ने दाँतो से काँटा निकाला है।
गरीब होना अपराध नहीं है,किन्तु दरिद्रता में ईश्वर को भूल जाना अपराध है।