सुदामा स्नानादि से निवृत हुए -तब श्रीकृष्ण ने उन्हें पहनने के लिए पीताम्बर दिया। भोजन विधि भी हो गई।
सुदामा को पलंग पर बैठकर श्रीकृष्ण उनकी चरण सेवा करने लगे और उनसे बातें करने लगे।
श्रीकृष्ण सुदामाको कहते है--मित्र,सच बताऊ,मै तो संसार से उकता गया हूँ। ग्रहथाश्रम में शान्ति कहाँ है?
अपने गुरुकुल जैसा आनंद अब कहाँ ? मित्र,बचपन में तुम्हे खेलने की आदत तो नहीं थी,पूरा दिन तुम गायत्री-मन्त्र का जप करते थे। मै तुम्हे जबरदस्ती खेलन ले जाता था। वह दिन भी मुझे याद है कि जब हम समिधा लेने गए थे
और मूसलधार वर्षा हुई थी और हमे एक वृक्षका आसरा लेना पड़ा था।
उस दिन सुदामा के पास कुछ चने थे जो अकेले खाने लगे। आवाज सुनकर श्रीकृष्ण ने पूछा कि वे क्या खा रहे है। सुदामा ने सोचा कि अगर सच कह दूँगा तो कुछ चने कृष्ण को भी देने पड़ेंगे। सो उन्होंने कहा,ठंडी के कारण दाँत कड-कड हो रहे है। सुदामा ने झूठ बोला इसलिए उन्हें दरिद्र होना पड़ा।
श्रीकृष्ण को सुदामा की चरण सेवा करते हुए रानियों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
आज तक पति ने ऐसा प्रेम किसी की ओर नहीं दिखाया है। यह ब्राह्मण बड़ा भाग्यशाली है।
श्रीकृष्ण बोले-- तूने विवाह किया है या नहीं? कैसी है मेरी भाभी?
सुदामा बोले-विवाह हुआ है। पत्नी सुशीला लायक है। घर में बच्चे है।
(पर ऐसा नहीं कहा कि घर में खाने के लिए कुछ नहीं है। )
मित्र-तेरी भाभी की इच्छा और अनुरोध से ही मै तुमसे मिलने आया हूँ।
श्रीकृष्ण बोले - भाभी इतनी सुपात्र है तो उन्होंने मेरे लिए कुछ तो भेजा ही होगा।
रुक्मणी (लक्ष्मीजी) बोली -नाथ,यह गरीब ब्राह्मण आपको क्या देगा? आपको इन्हें कुछ देना चाहिए।
अगर आप आज्ञा दो तो मै आपके मित्र के घर कुछ भेजू।
कृष्ण बोले -मै देना नहीं,इससे लेना चाहता हूँ।
रुक्मणी(लक्ष्मीजी) -यह दरिद्र आपको क्या दे पायेगा?
श्रीकृष्ण को बुरा लगा। मेरे मित्र को दरिद्र कहने वाली तू कौन होती है?
लक्ष्मीजी ने सोचा कि श्रीकृष्ण के तेवर आज कुछ ठीक नहीं है। उन्होंने प्रभु से माफ़ी मांगी।
सुदामा तंदुल की पोटली संकोचवश छिपा रहे था।
भगवान मन में हँसते है कि- उस दिन (जंगलमे) चने छिपाये थे और आज तंदुल छिपा रहा है।
जो मुझे देता नहीं है,उसे मै भी कुछ नहीं देता। सो मुझे छीनना ही पड़ेगा।
और भगवान ने तंदुल की पोटली छीन ली और तंदुल खाने लगे.