Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-464


सुदामा चरित्र का सार है कि- परमात्मा जिव मात्र के निःस्वार्थ मित्र है। जगत में परमात्मा को छोड़कर ऐसा कोई अन्य नहीं है जो अपना सर्वस्व किसी को दे दे। यदि सेवा और स्तुति करनी है तो भगवान की करो।
जीव  जब ईश्वरसे प्रेम करता है तब ईश्वर जीवको भी ईश्वर बना देता है। जीवका सच्चा मित्र,परमपिता ईश्वर ही है।

सुदामा ने ईश्वर से निरपेक्ष प्रेम किया तो उन्होंने सुदामा को अपना लिया और अपने जैसा वैभवशाली भी बना दिया। सुदामापुरी भी द्वारिका-सी समृद्ध बना दी।
भगवान् तो उनके चरण कमल का स्पर्श करने वाले को अपना स्वरुप दे देते है तो -
तुच्छ धनके दान का तो आश्चर्य ही क्या है? शारीरिक मिलन  तुच्छ है,मन का मिलन दिव्य है।
यदि धनि व्यक्ति दरिद्रों को ह्रदय से सम्मान दे तो आज भी सभी नगर द्वारिकाकी तरह समृद्ध हो सकते है।

अब सूर्य ग्रहणका प्रसंग आया। कुरुक्षेत्र में व्रजवासी,यादव,वसुदेव-देवकी,नंदबाबा-यशोदाजी  सब इकठ्ठे हुए है। सर्व के साथ श्रीकृष्णका एक साथ मिलन  हुआ है। परमानन्द हुआ है।

गोपियोंका प्रभु के प्रति प्रेम देखकर प्रभु पत्नियां अपने आपको धिक्कारने लगी।
“हमे ऐसा गोपियो जैसा प्रेम कब प्राप्त होगा? रानियों ने राधाजी की खूब प्रसंशा सुनी थी।
वे सोचती है कि राधाजी में ऐसी क्या विशेषता है?

एक बार सभी रानियों ने राधाजी को एकांत में बुलाकर तरह-तरह के प्रश्न किये। राधाजी तो बहुत भोली है।
उनको तो प्रेम के सिवा और कुछ नहीं पता है। फिर रानियों ने राधाजी के लिए दूध मँगाया।
राधाजी ने पीने के लिए मना किया। रानियों के खूब आग्रह से उन्होंने दूध लिया।
दूध गरम था पर फिर भी बिना किसी संकोच से बोले बिना गरम दूध पी लिया।

उस दिन रात को रुकमणीजी भगवान की चरण सेवा करने गई। देखा तो प्रभु के पाँव में बड़े-बड़े चीरे पड़े थे। उन्होंने प्रभु से पूछा- आप बहार तो गए नहीं है तो फिर  यह पाँव में चीरे कैसे पड़े? भगवान ने बात टाल दी।
रुक्मणी ने कारण जानने का आग्रह किया इणलिए श्रीकृष्ण को गुप्त बात कहनी  पड़ी।

श्रीकृष्ण ने पूछा-आपने आज राधाजी को गरम दूध पिलाया था? रुक्मणी ने “हाँ “ कहा।
"पर इसका पाँव के चीरे के साथ क्या सम्बन्ध?"
श्रीकृष्ण ने कहा -देवी,आप नहीं जानती,राधाजी उनके ह्रदय में निरन्तर मेरे चरणों को रखती है.
श्रीकृष्ण के  ह्रदय में  राधाजी हमेशा रहती है और राधाजी के ह्रदय में श्यामसुंदर हमेशा रहते है।

अब वर्षा ऋतु आई और सभी व्रजवासी वापस जाने के लिए तैयार हुए है।
नंदबाबा और यशोदाजी ने श्रीकृष्ण और बलराम को गले लगाया है। व्रजवासियों ने कुरुक्षेत्र से विदाई ली।

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