Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-472


पाँचवे योगेश्वरने भगवान् नारायण का स्वरुप बताया।
फिर निमि राजा ने कहा-हमे कर्मयोग के विषय में कुछ बताइये।
कर्म,अकर्म  और विकर्म में मुझे उलझन होती है।
तब छट्ठे योगेश्वर आविर्होत्र बोले -राजा,तुम्हारी बात  योग्य है। बहुत से विद्वान भी इसमें उलझ जाते है।

कर्म से अकर्म और अकर्म से कर्म का दर्शन करे अर्थात अनासक्त भावसे कर्म करे वही श्रेष्ठ है।
कर्म करो किन्तु अनासक्त भाव से- कभी भी फलकी इच्छा मत करो । सभी फल  ईश्वरको अर्पण  करो।

सातवें  योगेश्वर द्रूमि ने प्रभु की लीलाओं का वर्णन किया। उन्होंने सभी अवतारों की कथा सुनाई।
आठवें योगेश्वर चमस ने भ्रान्ति वाले (अज्ञानी)  पुरुष की अधोगति का वर्णन किया।
करभाजन नाम के योगेश्वर ने परमेश्वर की पूजा विधि बताई।
अंत में नारदजी ने वसुदेवजी से कहा -अब अधिक समय नहीं है।
श्रीकृष्ण को अपना पुत्र मत मानो। वह तो साक्षात् परमात्मा है।

उधर देवगण भी प्रभु से स्वधाम लौटने के लिए प्रार्थना करने लगे। प्रभु ने भी पृथ्वीलोक से जाने का निश्चय किया।
द्वारिका में अपशुकन होने लगे। वृद्ध यादवों ने भगवान् के पास आकर कहा -प्रभु,यहाँ रहना रहना इष्ट नहीं है क्योंकि ऋषियों ने शाप दिया है। प्रभास-क्षेत्र में बसना ठीक रहेगा और सब वहाँ जाने की तैयारी करने लगे।

उद्धवजी ने सुना तो वे समझ गए कि भगवान यादवों का संहार करके इस लोक का त्याग करने की तैयारी कर रहे है। वे प्रभु के पास आये और कहने लगे-मै आपकी शरण में आया हूँ। आपके विरह में मै कैसे जी सकूँगा?
आप जहाँ जायेंगे मै आपके साथ चलूँगा।

भगवान ने कहा -अरे उद्धव,जब तुम मेरे साथ आये ही नहीं थे तो फिर साथ चलने का प्रश्न ही कैसा?
श्रीकृष्ण ने कहा -उद्धव यह सब माया का खेल है,भ्रम  है ,संसार असत्य है,बस मात्र आत्मा ही सत्य है।
यह कहकर प्रभु ने त्याग-सन्यास का उपदेश दिया।
उद्धवजी-त्याग और सन्यास का मार्ग बड़ा कठिन है। कोई सरल मार्ग दिखाइए। मुझे कृपा करके ज्ञान दीजिए।
भगवान -उद्धव,मैंने तुम्हे मनुष्य जन्म देकर क्या कम कृपा की है?अब तो तुम्हे स्वयं ही अपने पर कृपा करनी होगी। स्वयं अपना गुरु बनाकर अपना उद्धार करना।

आत्मा ही आत्मा का गुरु है। ईश्वर ने तो मनुष्य जन्म देकर कृपा की है।
अब तो जीव को ही अपने पर कृपा करनी है।
जीवन का लक्ष्य निर्धारित करके लगन से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करोगे तो सफलता अवश्य मिलेगी।
अधिकतर जीवों को अपने लक्ष्य का ज्ञान ही नहीं है। जीवन का लक्ष्य है प्रभु की प्राप्ति।

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