भगवान् बोले- अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण मैंने किया है। किन्तु मनुष्य शरीर मुझे अधुक प्रिय है।
इस मनुष्य शरीर में जीव तीक्ष्ण और एकाग्र युक्त होकर ईश्वर का साक्षात् अनुभव कर सकता है।
इस सम्बन्ध में अवधूत दत्तात्रेय और यदुराजा का संवाद सुनने योग्य है।
उद्धव,यदुराजा ने श्रीदत्तात्रेय से ऐसे ही प्रश्न पूछे थे।
यदुराजा ने देखा कि त्रिकालदर्शी अवधूत ब्राह्मण निर्भयता से विचर रहे है।
सो उन्होंने पूछा-दत्तात्रयजी,आपकी भाँति मेरा शरीर पुष्ट नहीहै। जिस काम और लोभ की अग्नि में संसार के अधिकांश लोग जल रहे है,उससे आप बिलकुल प्रभावित नहीं होते है। आप अपने ही स्वरुप में स्थित रहते है।
आप अपनी आत्मा में निर्विचनीय आनंद का अनुभव किस प्रकार कर पाते है?
दत्तात्रेयजी - राजन,मैंने जान लिया है कि सांसारिक जड़ वस्तुओं में आनंद नहीं है। जड़-वस्तुओं में से मन को हटाकर सभी के दृष्टा आत्मस्वरूप में दृष्टि को स्थिर करके दृष्टा का दर्शन करता हूँ।
दृश्य में से दृष्टि को हटाकर जो दृष्टा में स्थिर करता है,उसी को आनंद मिलता है।
राजन,आनंद बाहर के विषयों में नहीं है,भीतर ही है। मैंने अपनत्व को भुलाकर दृष्टि को अन्तर्मुख के लिया है।
मै अपने ही स्वरुप में स्थित हूँ। तुम भी स्वयं को सुधार लो।
दीक्षा गुरु एक होता है किन्तु शिक्षा-गुरु अनेक हो सकते है। मैंने एक नहीं,चौबीस गुरुओं से ज्ञान पाया है।
मेरे गुरु के नामादि इस प्रकार है। यह ज्ञान जो मुझे मिला है वह अनेक गुरुओं से मिला है।
हरेक में से कोई न कोई उपदेश मिला है। मेरे गुरुओं के नाम तुझे जानने हो तो सुन -
(१) धरती- के पास से खूब सहन करना वह बोध लिया।
(२) वायु- से मैंने संतोष और निःसंगता सीखी है।
(३) आकाश- ने मुझे सिखाया है कि आत्मा आकाश की भाँति अनादि और अविनाशी है।
ईश्वर उसी की भाँति सर्वव्यापी है।
(४) जल- से मैंने शीतलता और मधुरता का उपदेश पाया है। जल की भाँति साधक को शुद्ध रहना चाहिए।
(५) अग्नि -से मैंने पवित्रता सीखी है। ह्रदय में यदि विवेकरूपी अग्नि होगी तो पाप नहीं आएगा।
(६) चन्द्र -ने मुझे क्षमता सिखाई है। वृद्धि और ह्यास तो शरीर के होते है,आत्मा के नहीं।
(७) सूर्य- की भाँति परोपकारी और निरभिमानी होना है।