बंधन और मोक्ष शरीर के नहीं मन के धर्म है।
हे उद्धव,यह जीव मेरा ही अंश है,फिर भी अविद्याके कारण बंधनोंमें फँसता है। नाम ही उसे मुक्त कर सकता है।
ईश्वर बंधन और मोक्ष से पर है।
जीव कर्मों से बंधा हुआ है,ईश्वर नित्यमुक्त है। इस संसारमें आत्मज्ञानवाला मुक्त है और अन्य सब बंधे हुए है।
जिस व्यक्ति के प्राण,इन्द्रियाँ,मन,वृत्तियाँ तथा बुद्धि संकल्परहित है,वह देहधारी होते हुए भी देह-गुणों से मुक्त है।
श्रीकृष्ण ने साधु-पुरुषों और भक्ति के लक्षणों का वर्णन किया। उन्होंने सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए कहा -वृत्रासुर,प्रह्लाद,बलिराजा,विभीषण,सुग्रीव,हनुमान,कुब्जा,व्रज की गोपियाँ आदि-
सत्संग के द्वारा ही मुझे प्राप्त कर सके थे। वे वेदों से भी अज्ञात थे और उन्होंने तप भी नहीं किया था।
फिर भी सत्संग-प्रेरित भक्ति के कारण मुझे पा सके।
सत्संग से पशु-पक्षी तक का भी जीवन सुधरता है। कामी के साथ रहकर ध्यानादि नहीं हो पायेगा।
उद्धव,मनुष्यों के संग में बसकर मनुष्य बन पाना सरल है किन्तु ब्रह्मनिष्ठ हो पाना बड़ा कठिन है।
फिर भगवान ने संसारवृक्ष का वर्णन किया।
संसारवूक्ष के बीज है पाप और पुण्य ,वासनाएँ मूल है,सत्व,रज और तमोगुण उसकी तने है,
इन्द्रियाँ और मन डालियां है,विषय रस है,सुख और दुःख फल है।
विषयों में फंसा रहनेवाला भोगी,दुःखी होता है।
उद्धवजी ने पूछा-मनुष्य जानता है कि विषय दुःखदायी है फिर भी उन्हें भुगतने की इच्छा क्यों रखता है?
विषय मन की ओर जाते है या मन विषय की ओर ?
भगवान - यह रजोगुणी मन मनुष्य को विषयो में फँसाता है।
पहले मन विषयकी ओर जाता है और फिर उन विषयों का आकर धारण करके विषयोंको अपनेमें बसा लेता है।
मन विषयाकार हो जाता है। मन स्वयं विषययुक्त बनकर जीवको सताता है।
विषयों का चिंतन प्रभुभक्ति में बाधक है। ईश्वरस्मरण चाहे न हो पाए,पर,सांसारिक विषयों का चिंतन तो
कभी मत करो। मन को विषयों की ओर मत जाने दो,उसे वश में करके मुझी (ईश्वर) में एकाग्र कर दो।
ईश्वर में मन का लय करना ही महान योग है।