(१)ज्ञानयोग (२)कर्मयोग (३) भक्तियोग
मनुष्य-शरीर,ज्ञान और भक्ति प्राप्त करने का साधन है,अतः श्रेष्ठ है।
यह मनुष्य-शरीर उत्तम नौका के समान है,सभी फलों का मूल है,करोडो उपायों से भी अलभ्य है।
मनुष्य-शरीर दैवयोग से मिल पाया है। फिर भी यदि मनुष्य इस अमूल्य देह-नौका का सदुपयोग न कर,
भवसागर पार करने का प्रयत्न न करे तो वह मनुष्य स्वयं अपना ही नाश करता है।
उद्धव,यदि सत्संग न किया जाए तो कोई बात नहीं किन्तु कामी-विषयी का संग तो कभी मत करना।
सत्संग की प्राप्ति ईश्वर की कृपा पर आधारित है,कामी का संगत्याग मनुष्य के अपने बस की बात है।
हे उद्धव,तुम अपना मन मुझे ही देना। मै तुम्हारा धन नहीं,मन ही माँगता हूँ।
इस अखिल विश्व में मै ही व्याप्त हूँ,मेरी भावना करना।
भक्ति के द्वारा सभी के आत्मस्वरूप मेरे दर्शन करके मनुष्य के ह्रदय के अहंकार की गाँठ छूट जाती है,
सभी संयम नष्ट होते है और सभी कर्म भी नष्ट होते है।
उद्धव,किसी की प्रशंसा से प्रसन्न न होना और किसिस की निंदा से अप्रसन्न भी न होना।
स्तुति और निंदा को एक समान मानना।
उद्धवजी कहने लगे- निंदा को कैसे सहा जाए?
भगवान - जो निंदा सह न सके वह कच्चा है। निंदक तो मित्र है,वह हमे दोष दर्शन कराता है। इसी कारणसे
तो साधुजन हमेशा निंदक को अपने साथ ही रखते है। निंदा के शब्द तो आकाश में विलीन हो जाते है।
फिर भगवान् ने उद्धव को भिक्षुगीत का उपदेश दिया।
सुखदुःख तो मन की कल्पना है। मन की निद्रा की स्थिति यदि जाग्रति में भी हो जाए तो मुक्ति है।
लोग भिक्षु की निंदा करते है किन्तु वह मन पर असर नहीं होने देता।
भिक्षु कहता है -
धनार्जन में,धन के उपभोग में,उसे बढ़ाने और रक्षा करने में,उसका नाश होने पर परिश्रम,चिन्ता होती है,
फिर भी मनुष्य वैसे ही धन के पीछे भागता-फिरता है।
धन हर प्रकार से,हर स्थिति में मनुष्य को सताता है,फिर भी उसे विवेक नहीं आता।
पुरुरवा-उर्वशी के दृष्टान्त के द्वारा यह भी बताया है कि स्त्री के सतत संग से पुरुष की दशा क्या होती है।
दुष्टों की संगति मनुष्य की अधोगति करती है और सज्जनों की संगति ऊर्ध्वगति।
ऐलगीता में देह की चर्चा की गई है जो हमने ऊपर देखी। यह शरीर माँस,हड्डी,चमड़ी से भरा और दुर्गन्धयुक्त है। इसी देह में रत व्यक्ति पशु और कीड़े से भी हीन है।