जो इस मन को वश कर सकता है,उसी का योगमार्ग सिद्ध होता है।
किन्तु जो व्यक्ति मन को जल्दी वश में न कर सके,वह कैसे सिद्धि प्राप्त कर सकता है वह मुझे बताइये।
श्रीकृष्ण कहते है-कि- उद्धव,अर्जुन ने भी मुझसे यही पूछा था।
मन को अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है किन्तु सरल मार्ग तो है मेरी(ईश्वर) भक्ति।
भक्तजन अनायास ही ज्ञानी,बुद्धिमान,विवेकी और चतुर हो जाता है और अंत में मुझे(ईश्वर) को प्राप्त करता है।
भक्ति स्वतन्त्र है। उसे किसी क्रियाकांड आदि का सहारा नहीं लेना पड़ता। वह सबको अपने अधीन कर लेती है। ज्ञानी और कर्मयोगी को भी इस भक्ति-उपासना की आवश्यकता रहती है।
उन दोनों (ज्ञान और कर्म) में भक्ति का मिश्रण हो ,तभी वे मुक्तिदायी बन सकते है।
जो मनुष्य सब कर्मों का त्याग करके अपनी आत्मा मुझे समर्पित कर देता है,
तब उसे सर्वोत्कृष्ट बनाने की मुझे इच्छा होती है। फिर वे मेरे साथ एक बनने के योग्य होते है और मोक्ष पाते है।
उद्धव,तू औरों की निंदा मत करना। जगत को सुधारने का व्यर्थ प्रयत्न भी न करना। अपने आप को ही सुधारना। जगत को प्रसन्न करना कठिन है पर परमात्मा को प्रसन्न करना कठिन नहीं है।
हे उद्धव,मै तुम्हारा धन नहीं,मन माँगता हूँ। मन देने योग्य तो केवल मै (परमात्मा) ही हूँ।
मै तुम्हारे मन की बड़ी लगन से रक्षा करूँगा। मै सर्वव्यापी हूँ। तुम मेरी ही शरण लो।
उद्धव,मैंने तुम्हे समग्र ब्रह्मज्ञान का दान दिया है। इस ब्रह्मज्ञान के ज्ञाताको मै अपना सर्वस्व देता हूँ।
अब तो तुम्हारा मोह,शोक आदि दूर हो गए न?
उद्धव ने भगवान को प्रणाम किया और कहा - अब मै कुछ भी सुनना नहीं चाहता।
जितना सुना है उस पर मनन करना चाहता हूँ।
श्रीकृष्ण- उद्धव,अब तुम अलकनंदा के किनारे बद्रिकाश्रम में रहकर इन्द्रियों को संयमित करके
ब्रह्मज्ञान का चिंतन करो। अपना मन मुझी में स्थिर करना। वैसा करने पर तुम मुझे प्राप्त कर सकोगे।
बद्रिकाश्रम योगभूमि है,वहाँ प्रभु की प्राप्ति शीघ्र होती है।
उद्धव ने प्रार्थना की - आप मेरे साथ चलिए।
भगवान -मै इस शरीरके साथ अब वहाँ जा नहीं सकता। मै चैतन्य स्वरुपसे तुम्हारे ह्रदय में ही हूँ,तुम्हारा साक्षी हूँ।
तू चिंता मत कर। तू जब आतुरता और एकाग्रता से मेरा स्मरण करेगा,मै उपस्थित हो जाउंगा।
अन्यथा इस मार्ग में तो अकेले ही आगे -जाना है।